Thursday, May 17, 2012


डर कई चीजों का होता है....कभी कभी ये डर किसी को मनाने का होता है तो कभी किसी के रूठने का , कभी किसे के हमसे आगे निकलने का डर ,तो कभी एक डर होता है किसी से पीछे रह जाने का, कभी किसी को खो देने का, कभी अकेलेपन का और कभी कभी भीड़ का, तो कभी भीड़ में भी अकेले रह जाने का. डर ......कभी किसी के लिए परेशान होने का, तो कभी ये डर की कहीं कोई हमारे लिए परेशान ना हो. किसी को कॉल करते समय भी डर कि पता नहीं वो कॉल उठाये या ना उठाये और ये जानकर भी कि कॉल नहीं रिसीव हुआ फिर भी कॉल करते रहना और डर से लगातार उसकी सलामती कि दुआ करना.......पर है तो ये डर ही. दोस्त को भी कॉल करने से पहले मेसेज करना, कोई बात शुरू करने से पहले उसके बारे में लम्बी भूमिका बांधना......ये भी एक डर ही तो है कि कहीं कोई आपको गलत ना समझ ले. रात को फ़ोन कि घंटी बजने पर अनजानी आशंका का डर,रास्ते में चलते हुए किसी जानने वाले को तलाशना पर उस तलाश में भी डरते रहना कि कहीं उसने आपको ना पहचानकर आपके पूरे वजूद को ही तो नहीं नकार दिया ......'डर' बस दो अक्षर का शब्द और सारे रिश्तों के मायने बदलने की ताकत रखता है .......डर के कारण दिन में चार- पांच बार किसी के बारे में पूछना, घडी-घडी मेसेज करना, माँ - पापा का डर कुछ ना कहते हुए भी दिन में कई बार कॉल करना ...और पूछना खाना खाया , पढाई की , नाश्ता किया ...तुम्हारी मम्मी ने ये कहा , पापा ये लाये थे या पापा ये कह रहे थे.......पर उनको भी पता है कि वो भी एक डर के साए में दिन भर क्या जानना चाहते हैं . घर से बहार निकलते ही समाज का डर , ना जाने कितनी घूरती आँखों का डर, उन आँखों में अनगिनत सवालों का डर , कुछ ना कहते हुए भी सब कुछ समझ आने का डर ........बात में भी बात का डर, अपनी बात के गलत ना हो जाने का डर ,किसी से बात करते हुए ये जानने का डर कि वो आपको किस रूप में ले रहा है ......दिल से सोचने पर दिमाग कि उलझनों का डर और दिमाग से सोचने पर दिल के टूटने का डर................बोलने से पहले हर शब्द को दिमाग की कसौटी पर तोलना क्यूंकि बिना तोले बोलने पर रिश्तों के टूटने का, दोस्तों के रूठने का डर ........ ये डर तो फिर भी झेले जा सकते हैं पर जब ये डर की बात परस्पर एक -दूसरे पर निर्भर लोगों के बीच होता है तो डर और बढ़ जाता है और ये परस्पर एक दूसरे से जुड़े लोगों के साम्यावस्था पर चोट कर जाती है फिर उत्पन्न होता है डर का एक नया दौर जिसमे अल्पसंख्यक को बहुसन्ख्यक का डर है तो बहुसंख्यक भी अपने अहम् को लेकर अल्पसंख्यक से डरा हुआ है,अगर हिन्दू को मुस्लिम का डर है तो मुस्लिम भी बिना हिन्दू से डरे हुए सो नहीं पाता,और तो और घर और समाज की व्यवस्था के अभिन्न अंग भी एक दूसरे से डरे हुए हैं जिसमे पुरुष को स्त्री के वर्चस्व का डर -स्त्री को पुरुष द्वारा दबाये जाने का डर है , उत्तर वालों को दक्षिण वालों से डर लगता है तो दक्षिण वाले उत्तर की हिंदी खुद पर थोपे जाने से डरते हैं ,राज्यों को केंद्र के अपने पर हावी होने से बचने का डर और केंद्र को राज्यों के ज्यादा ताकतवर हो जाने से " सहकारी संघवाद" के लिए खतरा बनने का डर, जहाँ विकास नहीं है उस जगह के पिछड़ जाने का डर, जहाँ विकास हो चुका है वहां अपनी सत्ता बरक़रार रखने का डर, कभी वोट लेकर मुकर जाने वाले राजनेता का डर, कार्यपालिका का न्यायिक सक्रियता से डर, तो न्यापालिका का कार्यपालिका के महाभियोग से डर , कभी शोषद से रक्षा करने की शपथ लेने वाले नौकरशाही के शोषक बन जाने का डर तो कभी, कभी इन्फ्लेसन का डर, और सबसे बड़ा डर तो जनता जनार्दन के उखड जाने का डर कब तख़्त पलट हो जाये इसका डर फिर जब सारी बात घूम कर जनता पर आ जाती है ,फिर जनता जनार्दन को किसका डर ......उसे डर है तो बस अपने बच्चों के भविष्य का डर, जिसे उसने ऊँगली पकड़ कर चलना सिखाया उन्ही के बड़े होने पर आँखे फेरने का डर. कभी कोई बात ना करे तो डर और कोई बात करे तो पता नहीं; कब क्या काम करने को कह दे इसका और भी बड़ा डर .डर उफ्फ्फ ये डर ........डिग्रियां लेते हुए कहीं बेरोजगार ना रह जाये इसलिए ज्ञान की जगह शिक्षा के पीछे अंधाधुंध दौड़ने का डर......कहीं जिन्दगी की भागदौड़ में खुशियाँ छूट ना जाएँ इसलिए आँखों में आंसू भरकर भी छोटी-छोटी खुशियों को समेट कर उन्हें बस यादें बना कर संजोने का डर ................और ये सब जानकर भी, कि ये सब बस एक डर हैं मन के वहम है ......फिर भी हरदम इनसे डरते रहने का डर ..................क्यूंकि......बस डर और डर और डर .............डर.

Friday, February 3, 2012

सतह से उठता आदमी

"सतह से उठता आदमी" सुनने में काफी क्रन्तिकारी लगता है, सुनकर लगता है कि भारत तो बस उठ रहा है आगे बढ़ रहा है पर भारत का हर आदमी या कहा जाए तो आम आदमी तो सतह से उठ रहा है . दोनों में काफी अंतर है क्यूंकि एक जगह सिर्फ उठना है खुद आगे बढ़ना है और दूसरी जगह साथ से उठना है ....जो उसे एक विशेषता देती है , खास बनाती है , विशिष्ट पहचान देती है. पहचान भी वह जिसकी सभी को तलाश होती है, लेकिन क्या सिर्फ साथ से उठना ही काफी है? सतह के साथ उठना नहीं ?और अगर साथ से उठा भी जा रहा है तो वह सतह कौन सी है ? कहीं यह वह साथ तो नही है जो हमारे पूर्वजों के इतिहास, सभ्यता और संस्कृति कि देन है, जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को जानी चाहिए थी लेकिन सतह से उठते आदमी ने तो यह सतह छोड़ दी जबकि उसे छोडनी थी वह सतह वह सतह जिसमे गरीबी है , भूख है , दुख है , शंका है , संप्रदाय हैं, धर्मों के नाम पर झगडे हैं , देश की सीमाओं की खूनी संकीर्णता है , भ्रष्टाचार है . यहाँ पर सबसे अधिक ध्यान देने वाली बात यह है की आम आदमी जो अपनी रोजी -रोटी के प्रश्नों में इतना उलझा हुआ है उसे सतह से उठने का ख्याल कहाँ से आया ...इसमें सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई हमारे नेताओं( जिनको कई बार मैंने ना इतः ना उतः इति नेता कहकर संबोधित किया है ) ने उन्होंने आम आदमी में जामवंत की तरह उसको अपने बल की याद दिलाई और बढ़ा दिया उसको साथ से उठने की ओर . परन्तु यहाँ पर वह जरह से भूल कर बैठा ये जानने में की ये आज के युग का मानव है जिसमे अपना विवेक भी है . आम आदमी ने अपने विवेक से काफी कुछ सीखा और सब कुछ देख कर ये जान लिया कि अगर आगे बढ़ना है तो कुछ तो अलग करना ही होगा. पर दुःख कि बात ये हैं कुछ अलग करने का विभात्सा रूप इस तरह से सामने आया कि सतह से उठते आदमी ने छोड़ी संस्कारों के जमीन और निकल पड़ा आगे और आगे बढ़ने........... पर इस अंतहीन राह पर चलते हुए वो सतह से तो उठ गया पर मंजिल ना पाकर त्रिशंकू की तरह लटका रह गया .

शायद , ये जितने त्रिशंकू आकाश में दिख रहे हैं, यह वही सतह से उठते आदमी हैं जिनकी संख्या धीरे-धीरे और बढती जायगी और इंतजार करेगी किसी "सतह के साथ उठते आदमी का ".