"सतह से उठता आदमी" सुनने में काफी क्रन्तिकारी लगता है, सुनकर लगता है कि भारत तो बस उठ रहा है आगे बढ़ रहा है पर भारत का हर आदमी या कहा जाए तो आम आदमी तो सतह से उठ रहा है . दोनों में काफी अंतर है क्यूंकि एक जगह सिर्फ उठना है खुद आगे बढ़ना है और दूसरी जगह साथ से उठना है ....जो उसे एक विशेषता देती है , खास बनाती है , विशिष्ट पहचान देती है. पहचान भी वह जिसकी सभी को तलाश होती है, लेकिन क्या सिर्फ साथ से उठना ही काफी है? सतह के साथ उठना नहीं ?और अगर साथ से उठा भी जा रहा है तो वह सतह कौन सी है ? कहीं यह वह साथ तो नही है जो हमारे पूर्वजों के इतिहास, सभ्यता और संस्कृति कि देन है, जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को जानी चाहिए थी लेकिन सतह से उठते आदमी ने तो यह सतह छोड़ दी जबकि उसे छोडनी थी वह सतह वह सतह जिसमे गरीबी है , भूख है , दुख है , शंका है , संप्रदाय हैं, धर्मों के नाम पर झगडे हैं , देश की सीमाओं की खूनी संकीर्णता है , भ्रष्टाचार है . यहाँ पर सबसे अधिक ध्यान देने वाली बात यह है की आम आदमी जो अपनी रोजी -रोटी के प्रश्नों में इतना उलझा हुआ है उसे सतह से उठने का ख्याल कहाँ से आया ...इसमें सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई हमारे नेताओं( जिनको कई बार मैंने ना इतः ना उतः इति नेता कहकर संबोधित किया है ) ने उन्होंने आम आदमी में जामवंत की तरह उसको अपने बल की याद दिलाई और बढ़ा दिया उसको साथ से उठने की ओर . परन्तु यहाँ पर वह जरह से भूल कर बैठा ये जानने में की ये आज के युग का मानव है जिसमे अपना विवेक भी है . आम आदमी ने अपने विवेक से काफी कुछ सीखा और सब कुछ देख कर ये जान लिया कि अगर आगे बढ़ना है तो कुछ तो अलग करना ही होगा. पर दुःख कि बात ये हैं कुछ अलग करने का विभात्सा रूप इस तरह से सामने आया कि सतह से उठते आदमी ने छोड़ी संस्कारों के जमीन और निकल पड़ा आगे और आगे बढ़ने........... पर इस अंतहीन राह पर चलते हुए वो सतह से तो उठ गया पर मंजिल ना पाकर त्रिशंकू की तरह लटका रह गया .
शायद , ये जितने त्रिशंकू आकाश में दिख रहे हैं, यह वही सतह से उठते आदमी हैं जिनकी संख्या धीरे-धीरे और बढती जायगी और इंतजार करेगी किसी "सतह के साथ उठते आदमी का ".