आजादी के आन्दोलन के दौरान उभरे नेतृत्व में शायद बी. आर. अम्बेडकर ही थे जिनकी चिंता आजादी से ज्यादा आजादी के बाद की स्थिति को लेकर थी.वह आजादी के उस पार देख रहे थे .सन १९४७ की राजनीतिक आजादी अंतिम साध्य ना होकर सामाजिक आजादी की राह में महज एक पड़ाव थी .जिन लोगों ने १९४७ की आजादी को अंतिम आजादी मान लिया आज समय के साथ वो बौने होते जा रहे हैं . उस समय सामाजिक मुद्दों को इतनी अहमियत इसलिय नहीं दी गई क्यूंकि यह मन गया था कि आजादी के बाद अपने लोगों के साथ बैठकर यह सब सुगमता के साथ सुलझा लिया जायगा , लेकिन सामाजिक सवाल आज भी मुह बाय हुए खड़े हैं. आंबेडकर कि संपूर्ण सोंच भारत को शक्ति देने वाली है (यहाँ पर बहुत जरूरी है कि भारत और इंडिया में फर्क पहले से ही कर लिया जाय इसका मतलब ये नहीं है कि मै कहीं पर भी हिंदुस्तान को दो टुकड़ों में बाँटना चाहती हूँ पर खुद अम्बेडकर को जैसे इंडिया और भारत में बाँट दिया गया है उसके आधार पर मजबूरी के साथ यह कहना पड़ रहा है.) बाबा साहब के आर्थिक मुद्दों का प्रभाव भारत ने देखा ही नहीं ,सामाजिक मुद्दों ने ही उन्हें जीवन भर उलझाय रखा .उनके महत्वकांक्षी हिन्दू कोड बिल को स्वीकार ना करके भारत ने एक गंभीर भूल कि थी जो उस समय के रास्ट्रीय नेतृत्व कि गलत मानसिकता का परिचायक है. इससे यह भी पता चलता है कि समानता और स्वाभिमान कि राह कितनी कठिन है.
यह बात देखने लायक है कि क्या आजादी के ६३ सालों के बीत जाने के बाद भी माहोल बदला है? ना जाने क्यूँ हम अल्पसंख्यक आतंक से इस कदर ग्रस्त हैं कि हमने अपने शरीर के फालिज मारे हुए आधे भाग के इलाज के बारे में भी नहीं सोंचा .१५ अगस्त १९४७ को झंडा फहराने के बाद रास्ट्रीय नेतृत्व को पूरी ताकत से दलितों कि सामाजिक समस्याओं को लक्ष्य बनाने से किसने रोका था? यह प्रश्न समझ से परे है.महाभारत का एकलव्य भी जानता है कि उसका अंगूठा क्यूँ माँगा जा रहा है ?फिर भी गुरु-शिष्य परंपरा का निर्वाह करके वह गुमनामी के अँधेरे में खो जाता है .
बापू और बाबा साहब को इतिहास ने १९३२ में ऐसा एक अवसर दिया था.दूसरे गोलमेज सम्मलेन के बाद अंग्रेजों ने दलित वर्ग के लिय अलग वोटिंग अधिकार कि व्यावस्था स्वीकार कर ली थी ,जो दलितों को हिन्दू समाज से काटने के लिय किया गया था.इस घोषणा के उत्तर में गाँधी का अनशन समाज का विभाजन तो रोकना चाहता था परन्तु यह सामाजिक एकता के लिय उच्च वर्ग के वर्चस्व का बलिदान नहीं चाहता था.गाँधी अंग्रेजों के खिलाफ असहयोग आन्दोलन चलाते हैं, भारत छोड़ो का नारा लगाते हैं, स्वदेशी अभियान से अंग्रेजों को बड़ी आर्थिक चोट पहुंचाते हैं,लेकिन सामाजिक मोर्चे पर वे शोषकों और उत्पीड्कों के बहिष्कार के बात नहीं कर पाते हैं ,यह एक बहुत बड़ी विडम्बना है . उन्होंने यह नहीं कहा कि जानवरों का चमड़ा उतरना व मैला धोना बंद कर दो क्यूंकि कहीं ना कहीं वह भी उच्च वर्गों कि सामंतवादी मानसिकता के पोषक थे .यह सामाजिक असहयोग आन्दोलन का प्रमुख बिंदु हो सकता था,लेकिन कोई आन्दोलन नहीं सोंचा गया और यह लड़ाई सिर्फ आम्बेडकर कि लड़ाई बनकर रह गई.जिसके उदाहरण कालाराम मंदिर प्रवेश और चवदार तलब जल आन्दोलन हैं .गाँधी ने आम्देद्कर को कोई सहयोग तो नही दिया उलटे पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर कराके गुरुदाक्षिना में आम्बेडकर का अंगूठा ही मांग लिया और इस तरह जुझारू दलित नेतृत्व के आगे आने कि सभी संभावनाएँ समाप्त हो गईं.
बाबा साहब का मानना था कि जाती व्यवस्था ही सामाजिक समानता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधक है, सामाजिक विषमताओं को दूर करने के लिए सबसे प्राभावशाली माध्यम राजनीतिक सत्ता ही है.आजादी के बाद के सारे अनुभव यह बताते हैं कि दलित वर्ग कि स्थिति सुधारने के लिए राजनीतिक सत्ता ने मत्वपूर्ण कार्य किया है लेकिन वो सभी स्वार्थ प्रेरित ही रहे हैं .......चाहे वो बहिन मायावती के द्वारा पूरे लखनऊ में बनवाय गए मूर्तियाँ स्मारक या पार्क हों या फिर आम्बेडकर के नाम पर हजारों की संख्या में जारी की गई स्कीमे हों ....चाहे गावों का पूरा आंकलन किये बिना उन गावों को दिया गया आम्बेडकर गाव का दर्जा हों या फिर कुछ और .......पर यह सब कुछ स्वार्थ प्रेरित ही रहा है ..और अपने वोट बैंक को ध्यान में रखकर किया गया राजनीतिक स्वार्थ है....फिर चाहे माननीय कांशीराम जी को मर्नोपारांत "पोलिटिकल बुधा" का दिया गया उपनाम ही क्यूँ ना जो यह बताता है कि 'बुध सिर्फ मुस्करा सकते हैं ,पर अहिंसा का प्रण ले लेने के कारण बुराई का भी विरोध नहीं कर सकते........'
इन सब विडम्बनाओं के कारण हम आज भी आम्बेडकर को संघर्ष करते देख रहे हैं .....उनका रास्ता संगठन , शिक्षा , संघर्ष और फिर अधिकार का है.मुद्दा चाहे सामाजिक हो या संवैधानिक ...संघर्ष अभी लम्बा चलेगा और ऐसे माहोल में बाबा साहब का कद और प्रासंगिकता दोनों बढती जयगी .
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