Sunday, December 26, 2010

बेरोजगार :एक सामाजिक विडम्बना

एक रोज हमने बैठे -बैठे तय किया कि चलो मुल्क के सारे बेरोजगारों का इन्तेर्विएव लिया जाय,
ये सोचकर हमने एक नगर में प्रवेश किया,
तो एक बेरोजगार ने ताना मारा कि लो एक और आ गया,
फिर एक ने कहा साहब के लिए कुर्सी लाओ,
इन्हें बिठाओ.
दूसरा बोला कुर्सी होती तो क्या मै इस बुढ़ापे के नाम पर रोता ?
खुद भारत का प्रधानमंत्री ना होता.
हमने कहा कि अच्छा पानी पिलाओगे?
तो दूसरा बोला ,पानी कहाँ से लायेंगे,
हम तो खुद ही प्यासे खड़े हैं,
क्यूंकि मुल्क के सारे कुँए तो दीग्रिएयों से भरे पड़े हैं,
नल में भी उतना ही पानी आता है,
जितना कि दूध में मिलाया जाता है
तभी हमने एक रोते हुए बेरोजगार को देखा,
उसका दुखड़ा सुनने के लिए उसे टोका,
उसने बोला आज हमारा जन्मदिन है-
और हमारी जिन्दगी बर्बाद हो रही है,
आज से हमारी फॉर्म भरने की एज लिमिट समाप्त हो रही है.
हमने सोचा कि जवान खून इतना बेकार की सड़को पर सुखा दिया जाये,
और बूढा खून इतना दमदार की सारी सुविधाए पाए.
संविधान से कहना चाहिए कि...
एज लिमिट मंत्रियों की भी रहना चाहिए.
एज लिमिट मंत्रियों की भी रहना चाहिए........
एक से हमने पूछा क्या करते हो यार ?
वो बोला पेशे से हम साहित्यकार हैं पर आज कल बेकार हैं,
हमारी कविता जिस अखबार में छप कर आई ,
उसका भी भंटाधार हो गया.
और संपादक खुद ही बेरोजगार हो गया.
संपादक खुद ही बेरोजगार हो गया...............
एक से हमने पूछा कि आप ?
तो उसने बताया कि हम भारतीय कला के शिल्पी है ,
पर आज कल जेमिनी सर्कस में बिजी हैं .
हमने एक शहीद की विधवा का चित्र बनाया था,
उसे चूड़ियाँ तोड़ते दिखाया था,
काश उसे कपडे फाड़ते दिखाते,
उसके जवान अंगों की प्रदर्शनी लगाते,
तो हमारे हांथों में भी शबाब होता,
और हमारा चेहरा भी सुबह का खिला गुलाब होता,
पर साहब आजकल का दर्शक बड़ा स्मार्ट है ,
हमारे सारे कपड़े फाड़ कर बोला-
जनाब वो नहीं ये "मोडर्न आर्ट" है
जानब वो नहीं ये "मोडर्न आर्ट" है......
तभी हमने देखा एक बेरोजगार ने गधे को मारा,
मुल्क के सारे बेरोजगारों का गुस्सा उस पर उतारा,
हमने पूछा कि भाईसाहब ये क्या कर रहे हैं?
तो बोला भाईसाहब आप चुप रहे इस गधे ने हमारा हक़ मारा है..-
ये सुनकर हमारा माथा ठनका
हमारे दिमाग में खन्न से एक प्रश्न खनका-
हमने पूछा वो कैसे ??
वो बोला भाईसाहब एक आदमी को गधे की तलाश थी,
गधे की सारी खूबी हमारे पास थी,
पर फिर भी ये गधा इन्तेर्विएव पास कर गया,
और हमारा आदमी होना हमारा सत्यानाश कर गया-
आदमी होना हमारा सत्यानाश कर गया.....
एक सजजन से हमने पूछा साहब आप ?
तो वो बोला कि हम खुद अपने बाप .
हम इन बेरोजगारों में सबसे बड़े हैं ,
और आजकल चुनाव में खड़े हैं-
जीत गए तो रेल में और हार गए तो 'तिहार' जेल में .
हमने पूछा क्या होगा आपका चुनाव निशान,"बेरोजगार" ?
वो बोला नहीं बन्दूक हाथ में लिए हुए गहरी नींद में सोया चौकीदार ,
हमने कहा क्या बोलते हो??आखिर लोकतंत्र को क्यूँ तानाशाही से तोलते हो??
वो बोला,"सच्ची प्रतिभा का आत्मविश्वास जिस दिन टूट जाता है,अंधी प्रेरणा का हाथ अपने आप छूट जाता है"
हमने कहा कुछ ऐसा करो यार कि बदल जाये ये संसार,
तुम क्यूँ नहीं अपना लेते वो चुनाव निशान-
जिसमे बन्दूक की नाली को अपनी गर्दन की तरफ मोड़ते हुए,
संपूर्ण सभ्य समाज की तरफ एक प्रश्नचिन्ह छोड़ते हुए बना हो 'एक आम इंसान'
जिसके लिए ना हो जमीन और ना आसमान-
फिर बेरोजगारी का अँधेरा इतना गहरा हो जाय कि,
घबराकर अपने आप ही रोजगार का सवेरा हो जाय,
घबराकर अपने आप ही रोजगार का सवेरा हो जाय,
घबराकर अपने आप ही रोजगार का सवेरा हो जाय.

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