Saturday, October 15, 2011

अक्षर

अक्षर .....ना जाने कहाँ से बनते हैं और ना जाने इन अक्षरों में सिमटी हुई आवाज कि गूँज कहाँ तक जाती है .....कभी सब कुछ कहकर भी सामने वाले को कभी भी नहीं समझ आते है तो कभी बिना कहे अपने आप सब कुछ समझा जाते हैं ....एक तरह से देखा जाए तो ये अक्षर 'स्वयंभू' होते हैं खुद से उपजे और खुद में समाप्त हो जाते हैं....आवाजों को खुद आवाज देते हैं, दो बोलने वालों को बात देते हैं और ना बोलना चाहो तब भी मौन को भी साज देते हैं .....अक्षर हैं जो कवि के भावों को वाणी देते हैं , तो कभी किसी चित्रकार की तूलिका के रंग बनकर बिना कहे कागज पर सब कुछ उकेर देते हैं; पर वहां भी तो मौन अक्षरों का ही होता है ..........ये अक्षर ही तो हैं कि किसी शायर की कल्पना को गजल बना देते हैं , किसी लेखक के मन के उहापोह को पूरी किताब का रूप दे देते हैं ....कोई आलोचक है तो उसे भी अपने पास बुलाकर निराश नही करते और मुक्त हस्त से उसे भी कुछ ना कुछ देते ही रहते हैं ...ये अक्षर ही तो हैं जो किसी को अपने पास आता देख कर डर नहीं जाते...किसी से बैर नहीं करते, किसी का बुरा नहीं करते और हर स्थिति या परिस्थिति में बस समान भाव से अपने प्रयोग करने वाले कि इच्छा पर चलते- चले जाते हैं... मुक्त भाव से "ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर" का अपना मस्त राग गाते हुए ...

ये अक्षर ही तो हैं जो खुद से जोड़ने का भी सीधा रास्ता खींच लाते हैं ....कभी उस इश्वर से भी मिला देते हैं , अक्षर में अगर 'ओमकार' है तो अल्लाह की 'अजान' भी. कभी ध्यान में इश्वर को सुनने का मन करे तो वहां भी तो वहां भी भावनाओं की लम्बी उडान अक्षरों के बिना पूरी नही हो सकती और प्रार्थना की बात भी अक्षरों बिना अधूरी ही है ......जब भी अक्षर निकलते हैं और एक दूसरे तक पहुचते हैं तो ना जाने कितने बड़े लक्ष्य को लेकर चलते हैं , ना जाने कितने महान कार्यों के निर्वहन का बोझ कन्धों पर रखते हैं ....पर भी कभी नहीं मिटते , कभी नहीं टूटते क्यूंकि अक्षर तो आखिर सृष्टि के आरम्भ से लेकर अंत तक 'अ-क्षर' हैं .

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