Saturday, October 15, 2011

संघर्ष

आज फिर से डूबते हुए सूरज को देखा और दूसरी ओर चंद्रमा निकल रहा था . शायद अस्ताचलगामी सूरज पर,चंद्रमा हँस रहा था या व्यंग्य कर रहा था ....कि लो तुम्हारे साम्राज्य ने मुझे प्रातःकाल पददलित किया था , किन्तु मैं तुम्हारे साम्राज्य पतन पर फिर उठ खड़ा हुआ और अपनी शीतलता से सभी को शांति प्रदान करने आ गया .

इस पर सूरज ने अपनी चिरपरिचित गंभीरता का परिचय देते हुए शांत भाव से कहा , " हे मित्र ! इस क्षणिक , नश्वर और अशाश्वत सौन्दर्य पर गर्व मत करो, यद्यपि मेरा अंत हो रहा है और मैं अपनी यात्रा पूर्ण कर चूका हूँ ....और इसमें मुझे दुःख न होकर प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है क्यूंकि मैं अपने जीवन का प्राप्य प्राप्त कर चुका हूँ....मेरा अवसान भी हुआ है पर जीवन के सर्वोच्च बिंदु को प्राप्त करके . मैं जब उदित हुआ था उस समय भी मेरे पास एक प्रण था की मुझे मानवता का कल्याण करना है , बिना किसी भेद- भाव के सामाजिक वर्ग भेद को भुलाकर ब्रह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र, जड़-चेतन, पशु-पक्षी सभी को अपनी स्वर्णिम किरण रश्मियों की जीवन्तता प्रदान करनी है ..इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु मैंने सारे दिन अपनी मंगल यात्रा पूरी की और अब अस्ताचल ( जिसे तुम मेरी पराजय मान कर प्रसन्न हो रहे हो ) में जाते हुए मैं इस बात के लिए संकल्पवान हूँ कि प्रातः काल फिर से मुझे सभी का कल्याण करने के लिए उपस्थित होना है. मेरा ये क्रम अबाध और शाश्वत है, मानव जगत के लिए कल्याणकारी और प्रेरणादायक है . मैं सभी में स्फूर्ति का संचार करके उन्हें हर परिस्थिति में 'संभावी' (सामान भाव ) बने रहने कि प्रेरणा देता हूँ. जहाँ तक मेरे साम्राज्य कि बात है तो मेरा साम्राज्य स्वंय समाप्त होकर भी दुसरे को निरंतर आगे बढ़ने कि प्रेरणा देता है. जिस शांति कि तुम बात कर रहे हो वह मिथ्या है 'संघर्ष ही जीवन का शाश्वत सत्य है' ........मैं जीवन संघर्ष का नाम है इस बात कि सीख देता हूँ इसलिए मेरा जन्म श्रेष्ठ है....स्वयं नष्ट होकर भी तुम्हे साम्राज्य प्रदान कर रहा हूँ इसलिए मेरी म्रत्यु भी प्रेरणा देती है ."

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