abhivyakti
Thursday, May 17, 2012
Friday, February 3, 2012
सतह से उठता आदमी
"सतह से उठता आदमी" सुनने में काफी क्रन्तिकारी लगता है, सुनकर लगता है कि भारत तो बस उठ रहा है आगे बढ़ रहा है पर भारत का हर आदमी या कहा जाए तो आम आदमी तो सतह से उठ रहा है . दोनों में काफी अंतर है क्यूंकि एक जगह सिर्फ उठना है खुद आगे बढ़ना है और दूसरी जगह साथ से उठना है ....जो उसे एक विशेषता देती है , खास बनाती है , विशिष्ट पहचान देती है. पहचान भी वह जिसकी सभी को तलाश होती है, लेकिन क्या सिर्फ साथ से उठना ही काफी है? सतह के साथ उठना नहीं ?और अगर साथ से उठा भी जा रहा है तो वह सतह कौन सी है ? कहीं यह वह साथ तो नही है जो हमारे पूर्वजों के इतिहास, सभ्यता और संस्कृति कि देन है, जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को जानी चाहिए थी लेकिन सतह से उठते आदमी ने तो यह सतह छोड़ दी जबकि उसे छोडनी थी वह सतह वह सतह जिसमे गरीबी है , भूख है , दुख है , शंका है , संप्रदाय हैं, धर्मों के नाम पर झगडे हैं , देश की सीमाओं की खूनी संकीर्णता है , भ्रष्टाचार है . यहाँ पर सबसे अधिक ध्यान देने वाली बात यह है की आम आदमी जो अपनी रोजी -रोटी के प्रश्नों में इतना उलझा हुआ है उसे सतह से उठने का ख्याल कहाँ से आया ...इसमें सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई हमारे नेताओं( जिनको कई बार मैंने ना इतः ना उतः इति नेता कहकर संबोधित किया है ) ने उन्होंने आम आदमी में जामवंत की तरह उसको अपने बल की याद दिलाई और बढ़ा दिया उसको साथ से उठने की ओर . परन्तु यहाँ पर वह जरह से भूल कर बैठा ये जानने में की ये आज के युग का मानव है जिसमे अपना विवेक भी है . आम आदमी ने अपने विवेक से काफी कुछ सीखा और सब कुछ देख कर ये जान लिया कि अगर आगे बढ़ना है तो कुछ तो अलग करना ही होगा. पर दुःख कि बात ये हैं कुछ अलग करने का विभात्सा रूप इस तरह से सामने आया कि सतह से उठते आदमी ने छोड़ी संस्कारों के जमीन और निकल पड़ा आगे और आगे बढ़ने........... पर इस अंतहीन राह पर चलते हुए वो सतह से तो उठ गया पर मंजिल ना पाकर त्रिशंकू की तरह लटका रह गया .
शायद , ये जितने त्रिशंकू आकाश में दिख रहे हैं, यह वही सतह से उठते आदमी हैं जिनकी संख्या धीरे-धीरे और बढती जायगी और इंतजार करेगी किसी "सतह के साथ उठते आदमी का ".
शायद , ये जितने त्रिशंकू आकाश में दिख रहे हैं, यह वही सतह से उठते आदमी हैं जिनकी संख्या धीरे-धीरे और बढती जायगी और इंतजार करेगी किसी "सतह के साथ उठते आदमी का ".
Saturday, October 15, 2011
संघर्ष
आज फिर से डूबते हुए सूरज को देखा और दूसरी ओर चंद्रमा निकल रहा था . शायद अस्ताचलगामी सूरज पर,चंद्रमा हँस रहा था या व्यंग्य कर रहा था ....कि लो तुम्हारे साम्राज्य ने मुझे प्रातःकाल पददलित किया था , किन्तु मैं तुम्हारे साम्राज्य पतन पर फिर उठ खड़ा हुआ और अपनी शीतलता से सभी को शांति प्रदान करने आ गया .
इस पर सूरज ने अपनी चिरपरिचित गंभीरता का परिचय देते हुए शांत भाव से कहा , " हे मित्र ! इस क्षणिक , नश्वर और अशाश्वत सौन्दर्य पर गर्व मत करो, यद्यपि मेरा अंत हो रहा है और मैं अपनी यात्रा पूर्ण कर चूका हूँ ....और इसमें मुझे दुःख न होकर प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है क्यूंकि मैं अपने जीवन का प्राप्य प्राप्त कर चुका हूँ....मेरा अवसान भी हुआ है पर जीवन के सर्वोच्च बिंदु को प्राप्त करके . मैं जब उदित हुआ था उस समय भी मेरे पास एक प्रण था की मुझे मानवता का कल्याण करना है , बिना किसी भेद- भाव के सामाजिक वर्ग भेद को भुलाकर ब्रह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र, जड़-चेतन, पशु-पक्षी सभी को अपनी स्वर्णिम किरण रश्मियों की जीवन्तता प्रदान करनी है ..इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु मैंने सारे दिन अपनी मंगल यात्रा पूरी की और अब अस्ताचल ( जिसे तुम मेरी पराजय मान कर प्रसन्न हो रहे हो ) में जाते हुए मैं इस बात के लिए संकल्पवान हूँ कि प्रातः काल फिर से मुझे सभी का कल्याण करने के लिए उपस्थित होना है. मेरा ये क्रम अबाध और शाश्वत है, मानव जगत के लिए कल्याणकारी और प्रेरणादायक है . मैं सभी में स्फूर्ति का संचार करके उन्हें हर परिस्थिति में 'संभावी' (सामान भाव ) बने रहने कि प्रेरणा देता हूँ. जहाँ तक मेरे साम्राज्य कि बात है तो मेरा साम्राज्य स्वंय समाप्त होकर भी दुसरे को निरंतर आगे बढ़ने कि प्रेरणा देता है. जिस शांति कि तुम बात कर रहे हो वह मिथ्या है 'संघर्ष ही जीवन का शाश्वत सत्य है' ........मैं जीवन संघर्ष का नाम है इस बात कि सीख देता हूँ इसलिए मेरा जन्म श्रेष्ठ है....स्वयं नष्ट होकर भी तुम्हे साम्राज्य प्रदान कर रहा हूँ इसलिए मेरी म्रत्यु भी प्रेरणा देती है ."
इस पर सूरज ने अपनी चिरपरिचित गंभीरता का परिचय देते हुए शांत भाव से कहा , " हे मित्र ! इस क्षणिक , नश्वर और अशाश्वत सौन्दर्य पर गर्व मत करो, यद्यपि मेरा अंत हो रहा है और मैं अपनी यात्रा पूर्ण कर चूका हूँ ....और इसमें मुझे दुःख न होकर प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है क्यूंकि मैं अपने जीवन का प्राप्य प्राप्त कर चुका हूँ....मेरा अवसान भी हुआ है पर जीवन के सर्वोच्च बिंदु को प्राप्त करके . मैं जब उदित हुआ था उस समय भी मेरे पास एक प्रण था की मुझे मानवता का कल्याण करना है , बिना किसी भेद- भाव के सामाजिक वर्ग भेद को भुलाकर ब्रह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र, जड़-चेतन, पशु-पक्षी सभी को अपनी स्वर्णिम किरण रश्मियों की जीवन्तता प्रदान करनी है ..इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु मैंने सारे दिन अपनी मंगल यात्रा पूरी की और अब अस्ताचल ( जिसे तुम मेरी पराजय मान कर प्रसन्न हो रहे हो ) में जाते हुए मैं इस बात के लिए संकल्पवान हूँ कि प्रातः काल फिर से मुझे सभी का कल्याण करने के लिए उपस्थित होना है. मेरा ये क्रम अबाध और शाश्वत है, मानव जगत के लिए कल्याणकारी और प्रेरणादायक है . मैं सभी में स्फूर्ति का संचार करके उन्हें हर परिस्थिति में 'संभावी' (सामान भाव ) बने रहने कि प्रेरणा देता हूँ. जहाँ तक मेरे साम्राज्य कि बात है तो मेरा साम्राज्य स्वंय समाप्त होकर भी दुसरे को निरंतर आगे बढ़ने कि प्रेरणा देता है. जिस शांति कि तुम बात कर रहे हो वह मिथ्या है 'संघर्ष ही जीवन का शाश्वत सत्य है' ........मैं जीवन संघर्ष का नाम है इस बात कि सीख देता हूँ इसलिए मेरा जन्म श्रेष्ठ है....स्वयं नष्ट होकर भी तुम्हे साम्राज्य प्रदान कर रहा हूँ इसलिए मेरी म्रत्यु भी प्रेरणा देती है ."
आवाज
आवाजें कभी अच्छी लगती हैं ,तो कभी बुरी .इंसान की मनोस्थिति का वर्णन कर देती हैं यही आवाजें .आवाजें किसी के साथ पक्षपात नहीं करती ,जितने प्यार से किसी के खुश होने की उद्घोषणा करती हैं उतनी ही शांति से बता देती हैं की आज कोई दुखी है ...आवाज से ही नाराजगी भी पता चलती है तो प्यार भी सबसे पहले झलकता है माँ का प्यार हो या पिता की झिडकी सब कुछ आवाज में सिमट जाती है ,आँखे दिल की जुबां हो ना हो पर आवाज दिल के हर भाव को बड़ी आसानी से बयां करती है. अगर आवाजें आपकी पसंद की हों तो ना जाने क्यूँ बहुत ख़ुशी दे जाती हैं और अगर यही आवाजें पसंद ना हों तो हमेशा परेशान करती हैं .मेरे आस-पास भी ना जाने कितनी ही आवाजें हैं ...और आवाजें क्या कहूँ अगर सच बोलूं तो आवाजें ही आवाजें हैं ..पर क्या है इनका मतलब क्यूँ हैं इतनी आवाजें ?.......कुछ आवाजों में ख़ुशी है, कुछ में जिन्दगी ढोते रहने का गम , कुछ हैं तो बहुत कुछ कहना चाहती हैं, पर फिर भी कुछ कहने से डरती हैं ....कुछ अपने हक के लिए उठती हैं ,तो कुछ बस दूसरों के लिए लडती हैं ,कुछ खामोश रहकर भी बहुत कुछ कहती हैं...और कुछ आवाजें तो बस खुद को भी नहीं सुनाई देती हैं ....अगर सबकी आवाजें सुनाई ही देतीं तो शायद आज आवाजों को इतना राजनीतिक नहीं माना जाता.....और तो फिर आवाजों को ना सुनने के पीछे इतनी राजनीतिक पार्टियाँ भी नहीं बनकर आतीं .....और फिर ना जाने कितने राजनीतिक दलालों की दुकाने भी बंद हो जाती, पर ये सब होने के लिए ये बहुत जरूरी था कि इन आवाजों को सुना जाता पर दिक्कत तो ये है कि कोई सुनने को तैयार ही नहीं है और जब आप लोकतंत्र में रह रहे हो तब तो बस .....सभी को तो अपनी सुनानी है लेकिन देखना ये होता है कि आवाज सुनाने के लिया तरीका कौन सा अपनाया गया है; किसी को अपनी आवाज सुनानी है तो पार्टी बना ली ,किसी को अपनी आवाज सुनानी है तो बंदूके उठा लीं,किसी को अपनी आवाज सुनानी है तो धमाके कर रहा है .पर इन धमाकों से किसी की आवाज सुनी जाय या ना सुनी जाय लेकिन हजारों नई आवाजें जरूर उभर आती है और फिर ये आवाजों दर आवाजों का सिलसिला बस यूँ ही चलता रहता है .......इसी क्रम में किसी गीतकार ने भी कह दिया कि,"मेरी आवाज सुनो......" बस हमेशा कि तरह सबके साथ आवाजों का रिश्ता भी बस बदलता ही जा रहा है और इनमे कही मै भी ढूढ़ रही हूँ अपने साथ अपनी आवाज.
अमलतास
कुछ रास्तों पर चलते हुए किनारे पर लगे हुए पेड़ अपने से लगते हैं , और अगर रास्ते जाने पहचाने हों तो इन रास्तों के साथ-साथ पेड़ों से भी अपनापन कुछ ज्यादा ही बढ़ जाता है . ये पेड़ रास्ते पर चलने वालों के साथ चलते हैं, आप अकेले चल रहे हों तो आपके साथी भी बनते हैं , आपके मौन की आवाज़ भी सुनते हैं , ना जाने कितना कुछ कहते हैं और जब कहतें हैं तो बस कहते ही जाते हैं ....या कह सकते हैं की मन की आवाज बनकर सामने आते हैं ....मौसम का असर दिखातें हैं ....कल तक जो पेड़ किनारों पर खड़े हुए थे आज भी वहीँ हैं लेकिन आज उनको देखने का वो नजरिया नहीं है; क्यूंकि मौसम के असर से सब कुछ बदल गया है ....कल तक जिनको देख कर बुरा लगता था...एक चिढ सी मचती थी ,,की क्या जरूरत है इनकी ??क्यूंकि ना तो ये छावं ही दे रहे हैं और ना तपती गर्मी से शांति ....बस खड़े होकर चिढ़ा रहे हैं कि और करो प्रकृति के साथ खिलवाड़ प्रकृति अपने उग्रतम रूप में बदला लेगी सारी मानव जाति से....उनको देखकर ये भी लगता था की क्यूँ बेकार ही बेचारे एक खजूर के पेड़ को ही सम्पूर्ण साहित्यिक आलोचना का केंद्र बनाया गया है......क्या कैम्पस की रोड के किनारे खड़े ये अमलतास के पेड़ खजूर के प्रतियोगी नहीं हैं ....क्यूंकि अगर खजूर के लिए कह सकते हैं की "बड़ा भया तो क्या भया जैसे पेड़ खजूर पंछी को छाया नहीं , फल लागत अति दूर "....तो ये अमलतास भी कहीं पीछे नहीं हैं.....ना तो इनमे छाया है और ना ही फल, फिर क्यूँ नही किसी साहित्यकार ने इन्हें अपनी आलोचना का शिकार बनाया ???? क्या सिर्फ इसलिए कि फल और छाया ना होते हुए भी इनमे फूल तो है ही ...और अगर फूल हैं- तो सौन्दर्य है, सौन्दर्य है तो शांति है ,सभी क्लेशों से मुक्ति है, जीवन को देखने का नया नजरिया है , नयी जीवनी शक्ति है........"सुन्दरता का सुन्दर करैं "(तुलसीदास जी की "मानस" की पंक्तियाँ जिसमे उन्होंने सीता की सुदरता का वर्णन किया है ) का विश्वास है और जब इन फूलों से लदे ये पेड़ खड़े होते हैं तो बस इनके साथ चलने वालों के मन में यही ख्याल आता है की जैसे कोई योगी अपनी पूरी शांति के साथ खुद सम्पूर्ण संसार को शांति और सौंदर्य का सन्देश दे रहा हो ...... बता रहा हो कि विश्व कभी युद्ध में खुश रह ही नहीं सकता ......अगर विश्व को खुश रहते हुए विकास करना है तो अंततः उसे शांति और सौंदर्य कि शरण लेनी ही होगी .....आज तक जितने भी युद्ध हुए हैं वो सब इस बात को प्रत्यक्ष रूप से प्रमाणित करते हैं........खैर ये तो विषयांतर है और ये युद्ध और शांति तो राजनीति और राजनीतिज्ञों कि बाते हैं ....उनके अपने निहित स्वार्थ हैं जिनकी कीमत सम्पूर्ण जनता को चुकानी होती है .....हाँ तो बात हो रही थी.........'अमलतास' की .....जब मौसम ने भी कुछ कृपा की हुई है इस समय इन पेड़ों पर लगे हुए फूल, चहकती हुई चिड़ियाँ , बारिश की हलकी फुहारों में उडती हुई फूलों की पत्तियां , बादलों से निकलता हुआ चाँद , सड़कों पर बिछी हुई पीले रंग की पत्तियां इस सब को देखकर ऐसा लगता है कि .........जैसे ये सारी चीजें कुछ कह रही हों......अपने सूक्ष्म रूप में सामने आकर जीवन को अपनी संपूर्ण जीवनी शक्ति से जीने का नया सन्देश दे रही हो , भौतिकता पर प्रकृति की विजय कि घोषणा कर रही हो ,प्रसन्नता का संचार कर रही हो .....आदि-आदि .
अक्षर
अक्षर .....ना जाने कहाँ से बनते हैं और ना जाने इन अक्षरों में सिमटी हुई आवाज कि गूँज कहाँ तक जाती है .....कभी सब कुछ कहकर भी सामने वाले को कभी भी नहीं समझ आते है तो कभी बिना कहे अपने आप सब कुछ समझा जाते हैं ....एक तरह से देखा जाए तो ये अक्षर 'स्वयंभू' होते हैं खुद से उपजे और खुद में समाप्त हो जाते हैं....आवाजों को खुद आवाज देते हैं, दो बोलने वालों को बात देते हैं और ना बोलना चाहो तब भी मौन को भी साज देते हैं .....अक्षर हैं जो कवि के भावों को वाणी देते हैं , तो कभी किसी चित्रकार की तूलिका के रंग बनकर बिना कहे कागज पर सब कुछ उकेर देते हैं; पर वहां भी तो मौन अक्षरों का ही होता है ..........ये अक्षर ही तो हैं कि किसी शायर की कल्पना को गजल बना देते हैं , किसी लेखक के मन के उहापोह को पूरी किताब का रूप दे देते हैं ....कोई आलोचक है तो उसे भी अपने पास बुलाकर निराश नही करते और मुक्त हस्त से उसे भी कुछ ना कुछ देते ही रहते हैं ...ये अक्षर ही तो हैं जो किसी को अपने पास आता देख कर डर नहीं जाते...किसी से बैर नहीं करते, किसी का बुरा नहीं करते और हर स्थिति या परिस्थिति में बस समान भाव से अपने प्रयोग करने वाले कि इच्छा पर चलते- चले जाते हैं... मुक्त भाव से "ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर" का अपना मस्त राग गाते हुए ...
ये अक्षर ही तो हैं जो खुद से जोड़ने का भी सीधा रास्ता खींच लाते हैं ....कभी उस इश्वर से भी मिला देते हैं , अक्षर में अगर 'ओमकार' है तो अल्लाह की 'अजान' भी. कभी ध्यान में इश्वर को सुनने का मन करे तो वहां भी तो वहां भी भावनाओं की लम्बी उडान अक्षरों के बिना पूरी नही हो सकती और प्रार्थना की बात भी अक्षरों बिना अधूरी ही है ......जब भी अक्षर निकलते हैं और एक दूसरे तक पहुचते हैं तो ना जाने कितने बड़े लक्ष्य को लेकर चलते हैं , ना जाने कितने महान कार्यों के निर्वहन का बोझ कन्धों पर रखते हैं ....पर भी कभी नहीं मिटते , कभी नहीं टूटते क्यूंकि अक्षर तो आखिर सृष्टि के आरम्भ से लेकर अंत तक 'अ-क्षर' हैं .
ये अक्षर ही तो हैं जो खुद से जोड़ने का भी सीधा रास्ता खींच लाते हैं ....कभी उस इश्वर से भी मिला देते हैं , अक्षर में अगर 'ओमकार' है तो अल्लाह की 'अजान' भी. कभी ध्यान में इश्वर को सुनने का मन करे तो वहां भी तो वहां भी भावनाओं की लम्बी उडान अक्षरों के बिना पूरी नही हो सकती और प्रार्थना की बात भी अक्षरों बिना अधूरी ही है ......जब भी अक्षर निकलते हैं और एक दूसरे तक पहुचते हैं तो ना जाने कितने बड़े लक्ष्य को लेकर चलते हैं , ना जाने कितने महान कार्यों के निर्वहन का बोझ कन्धों पर रखते हैं ....पर भी कभी नहीं मिटते , कभी नहीं टूटते क्यूंकि अक्षर तो आखिर सृष्टि के आरम्भ से लेकर अंत तक 'अ-क्षर' हैं .
Sunday, December 26, 2010
बेरोजगार :एक सामाजिक विडम्बना
एक रोज हमने बैठे -बैठे तय किया कि चलो मुल्क के सारे बेरोजगारों का इन्तेर्विएव लिया जाय,
ये सोचकर हमने एक नगर में प्रवेश किया,
तो एक बेरोजगार ने ताना मारा कि लो एक और आ गया,
फिर एक ने कहा साहब के लिए कुर्सी लाओ,
इन्हें बिठाओ.
दूसरा बोला कुर्सी होती तो क्या मै इस बुढ़ापे के नाम पर रोता ?
खुद भारत का प्रधानमंत्री ना होता.
हमने कहा कि अच्छा पानी पिलाओगे?
तो दूसरा बोला ,पानी कहाँ से लायेंगे,
हम तो खुद ही प्यासे खड़े हैं,
क्यूंकि मुल्क के सारे कुँए तो दीग्रिएयों से भरे पड़े हैं,
नल में भी उतना ही पानी आता है,
जितना कि दूध में मिलाया जाता है
तभी हमने एक रोते हुए बेरोजगार को देखा,
उसका दुखड़ा सुनने के लिए उसे टोका,
उसने बोला आज हमारा जन्मदिन है-
और हमारी जिन्दगी बर्बाद हो रही है,
आज से हमारी फॉर्म भरने की एज लिमिट समाप्त हो रही है.
हमने सोचा कि जवान खून इतना बेकार की सड़को पर सुखा दिया जाये,
और बूढा खून इतना दमदार की सारी सुविधाए पाए.
संविधान से कहना चाहिए कि...
एज लिमिट मंत्रियों की भी रहना चाहिए.
एज लिमिट मंत्रियों की भी रहना चाहिए........
एक से हमने पूछा क्या करते हो यार ?
वो बोला पेशे से हम साहित्यकार हैं पर आज कल बेकार हैं,
हमारी कविता जिस अखबार में छप कर आई ,
उसका भी भंटाधार हो गया.
और संपादक खुद ही बेरोजगार हो गया.
संपादक खुद ही बेरोजगार हो गया...............
एक से हमने पूछा कि आप ?
तो उसने बताया कि हम भारतीय कला के शिल्पी है ,
पर आज कल जेमिनी सर्कस में बिजी हैं .
हमने एक शहीद की विधवा का चित्र बनाया था,
उसे चूड़ियाँ तोड़ते दिखाया था,
काश उसे कपडे फाड़ते दिखाते,
उसके जवान अंगों की प्रदर्शनी लगाते,
तो हमारे हांथों में भी शबाब होता,
और हमारा चेहरा भी सुबह का खिला गुलाब होता,
पर साहब आजकल का दर्शक बड़ा स्मार्ट है ,
हमारे सारे कपड़े फाड़ कर बोला-
जनाब वो नहीं ये "मोडर्न आर्ट" है
जानब वो नहीं ये "मोडर्न आर्ट" है......
तभी हमने देखा एक बेरोजगार ने गधे को मारा,
मुल्क के सारे बेरोजगारों का गुस्सा उस पर उतारा,
हमने पूछा कि भाईसाहब ये क्या कर रहे हैं?
तो बोला भाईसाहब आप चुप रहे इस गधे ने हमारा हक़ मारा है..-
ये सुनकर हमारा माथा ठनका
हमारे दिमाग में खन्न से एक प्रश्न खनका-
हमने पूछा वो कैसे ??
वो बोला भाईसाहब एक आदमी को गधे की तलाश थी,
गधे की सारी खूबी हमारे पास थी,
पर फिर भी ये गधा इन्तेर्विएव पास कर गया,
और हमारा आदमी होना हमारा सत्यानाश कर गया-
आदमी होना हमारा सत्यानाश कर गया.....
एक सजजन से हमने पूछा साहब आप ?
तो वो बोला कि हम खुद अपने बाप .
हम इन बेरोजगारों में सबसे बड़े हैं ,
और आजकल चुनाव में खड़े हैं-
जीत गए तो रेल में और हार गए तो 'तिहार' जेल में .
हमने पूछा क्या होगा आपका चुनाव निशान,"बेरोजगार" ?
वो बोला नहीं बन्दूक हाथ में लिए हुए गहरी नींद में सोया चौकीदार ,
हमने कहा क्या बोलते हो??आखिर लोकतंत्र को क्यूँ तानाशाही से तोलते हो??
वो बोला,"सच्ची प्रतिभा का आत्मविश्वास जिस दिन टूट जाता है,अंधी प्रेरणा का हाथ अपने आप छूट जाता है"
हमने कहा कुछ ऐसा करो यार कि बदल जाये ये संसार,
तुम क्यूँ नहीं अपना लेते वो चुनाव निशान-
जिसमे बन्दूक की नाली को अपनी गर्दन की तरफ मोड़ते हुए,
संपूर्ण सभ्य समाज की तरफ एक प्रश्नचिन्ह छोड़ते हुए बना हो 'एक आम इंसान'
जिसके लिए ना हो जमीन और ना आसमान-
फिर बेरोजगारी का अँधेरा इतना गहरा हो जाय कि,
घबराकर अपने आप ही रोजगार का सवेरा हो जाय,
घबराकर अपने आप ही रोजगार का सवेरा हो जाय,
घबराकर अपने आप ही रोजगार का सवेरा हो जाय.
ये सोचकर हमने एक नगर में प्रवेश किया,
तो एक बेरोजगार ने ताना मारा कि लो एक और आ गया,
फिर एक ने कहा साहब के लिए कुर्सी लाओ,
इन्हें बिठाओ.
दूसरा बोला कुर्सी होती तो क्या मै इस बुढ़ापे के नाम पर रोता ?
खुद भारत का प्रधानमंत्री ना होता.
हमने कहा कि अच्छा पानी पिलाओगे?
तो दूसरा बोला ,पानी कहाँ से लायेंगे,
हम तो खुद ही प्यासे खड़े हैं,
क्यूंकि मुल्क के सारे कुँए तो दीग्रिएयों से भरे पड़े हैं,
नल में भी उतना ही पानी आता है,
जितना कि दूध में मिलाया जाता है
तभी हमने एक रोते हुए बेरोजगार को देखा,
उसका दुखड़ा सुनने के लिए उसे टोका,
उसने बोला आज हमारा जन्मदिन है-
और हमारी जिन्दगी बर्बाद हो रही है,
आज से हमारी फॉर्म भरने की एज लिमिट समाप्त हो रही है.
हमने सोचा कि जवान खून इतना बेकार की सड़को पर सुखा दिया जाये,
और बूढा खून इतना दमदार की सारी सुविधाए पाए.
संविधान से कहना चाहिए कि...
एज लिमिट मंत्रियों की भी रहना चाहिए.
एज लिमिट मंत्रियों की भी रहना चाहिए........
एक से हमने पूछा क्या करते हो यार ?
वो बोला पेशे से हम साहित्यकार हैं पर आज कल बेकार हैं,
हमारी कविता जिस अखबार में छप कर आई ,
उसका भी भंटाधार हो गया.
और संपादक खुद ही बेरोजगार हो गया.
संपादक खुद ही बेरोजगार हो गया...............
एक से हमने पूछा कि आप ?
तो उसने बताया कि हम भारतीय कला के शिल्पी है ,
पर आज कल जेमिनी सर्कस में बिजी हैं .
हमने एक शहीद की विधवा का चित्र बनाया था,
उसे चूड़ियाँ तोड़ते दिखाया था,
काश उसे कपडे फाड़ते दिखाते,
उसके जवान अंगों की प्रदर्शनी लगाते,
तो हमारे हांथों में भी शबाब होता,
और हमारा चेहरा भी सुबह का खिला गुलाब होता,
पर साहब आजकल का दर्शक बड़ा स्मार्ट है ,
हमारे सारे कपड़े फाड़ कर बोला-
जनाब वो नहीं ये "मोडर्न आर्ट" है
जानब वो नहीं ये "मोडर्न आर्ट" है......
तभी हमने देखा एक बेरोजगार ने गधे को मारा,
मुल्क के सारे बेरोजगारों का गुस्सा उस पर उतारा,
हमने पूछा कि भाईसाहब ये क्या कर रहे हैं?
तो बोला भाईसाहब आप चुप रहे इस गधे ने हमारा हक़ मारा है..-
ये सुनकर हमारा माथा ठनका
हमारे दिमाग में खन्न से एक प्रश्न खनका-
हमने पूछा वो कैसे ??
वो बोला भाईसाहब एक आदमी को गधे की तलाश थी,
गधे की सारी खूबी हमारे पास थी,
पर फिर भी ये गधा इन्तेर्विएव पास कर गया,
और हमारा आदमी होना हमारा सत्यानाश कर गया-
आदमी होना हमारा सत्यानाश कर गया.....
एक सजजन से हमने पूछा साहब आप ?
तो वो बोला कि हम खुद अपने बाप .
हम इन बेरोजगारों में सबसे बड़े हैं ,
और आजकल चुनाव में खड़े हैं-
जीत गए तो रेल में और हार गए तो 'तिहार' जेल में .
हमने पूछा क्या होगा आपका चुनाव निशान,"बेरोजगार" ?
वो बोला नहीं बन्दूक हाथ में लिए हुए गहरी नींद में सोया चौकीदार ,
हमने कहा क्या बोलते हो??आखिर लोकतंत्र को क्यूँ तानाशाही से तोलते हो??
वो बोला,"सच्ची प्रतिभा का आत्मविश्वास जिस दिन टूट जाता है,अंधी प्रेरणा का हाथ अपने आप छूट जाता है"
हमने कहा कुछ ऐसा करो यार कि बदल जाये ये संसार,
तुम क्यूँ नहीं अपना लेते वो चुनाव निशान-
जिसमे बन्दूक की नाली को अपनी गर्दन की तरफ मोड़ते हुए,
संपूर्ण सभ्य समाज की तरफ एक प्रश्नचिन्ह छोड़ते हुए बना हो 'एक आम इंसान'
जिसके लिए ना हो जमीन और ना आसमान-
फिर बेरोजगारी का अँधेरा इतना गहरा हो जाय कि,
घबराकर अपने आप ही रोजगार का सवेरा हो जाय,
घबराकर अपने आप ही रोजगार का सवेरा हो जाय,
घबराकर अपने आप ही रोजगार का सवेरा हो जाय.
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